विकास को प्रभावित करने वाले कारक एमपी वर्ग 3


विकास के विभिन्न आयाम

शारीरिक विकास- इस विकास में बालक के शरीर के बाएं एवं आंतरिक अवयवों का विकास शामिल है शरीर के बाएं परिवर्तन जैसे ऊंचाई शारीरिक अनुपात में वृद्धि इत्यादि स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं आंतरिक अवयवों के परिवर्तन रूप से दिखाई तो नहीं पड़ते हैं किंतु शरीर के भीतर उनका समुचित विकास होता रहता हैशारीरिक वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया व्यक्तित्व के उचित समायोजन और विकास के मार्ग में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है प्रारंभ में शिशु अपने हर प्रकार के कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है धीरे-धीरे विकास की प्रक्रिया के फल स्वरुप वह अपने आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम होता जाता हैशारीरिक वृद्धि एवं विकास पर बालक के अनुवांशिक गुणों का प्रभाव देखा जा सकता है इसके अतिरिक्त वाला के परिवेश एवं उसकी देखभाल का भी शारीरिक वृद्धि एवं विकास पर प्रभाव पड़ता है

मानसिक विकास-मानसिक विकास से तात्पर्य बालक की उन सभी मानसिक योग्यता एवं क्षमता में वृद्धि और विकास से हैं जिसके परिणाम स्वरुप वह अपने निरंतर बदलते हुए वातावरण में ठीक प्रकार समायोजन करता है और विभिन्न प्रकार के समस्याओं को सुलझाने में अपनी मानसिक शक्तियों का प्रयोग उपयोग कर पाता है कल्पना करना स्मरण करना विचार करना निरीक्षण करना समस्या समाधान करना निर्णय लेना इत्यादि की योग्यता संज्ञानात्मक विकास के फल स्वरुप ही विकसित होते हैं जन्म के समय बालक में इस प्रकार की योग्यता का अभाव होता है धीरे-धीरे आयु बढ़ने के साथ-साथ उसमें मानसिक विकास की गति भी बढ़ती रहती है

संज्ञानात्मक विकास- शिक्षकों को संज्ञानात्मक विकास के पर्याप्त जानकारी इसलिए होनी चाहिए क्योंकि अभाव इसके अभाव में वह बालक कि इससे संबंधित समस्याओं का समाधान नहीं कर पाएगा यदि कोई बालक मानसिक रूप से कमजोर है तो इसके क्या कारण है यह जानना उसके उपचार के लिए आवश्यक है संज्ञानात्मक विकास के बारे में पर्याप्त जानकारी होने से विभिन्न स्तरों पर पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं तथा अनुभव के चयन और नियोजन में सहायता मिलती है किस विधि और तरीके से पढ़ाया जाए, सहायक सामग्री तथा शिक्षण साधन का प्रयोग किस तरह किया जाए शैक्षणिक वातावरण किस प्रकार का हो इन सब के निर्धारण में संज्ञानात्मक विकास के विभिन्न पहलुओं की जानकारी शिक्षकों के लिए सहायक साबित होती है

भाषाई विकास- भाषा का विकास एक प्रकार का संज्ञानात्मक विकास ही है मानसिक योग्यता की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है भाषा का तात्पर्य होता है वह संकेतिक साधन जिसके माध्यम से बालक अपने विचारों एवं भावों का संप्रेषण करता है तथा दूसरों के विचारों एवं भावों को समझता है भाषी योगिता के अंतर्गत मौखिक अभिव्यक्ति सांकेतिक अभिव्यक्ति लिखित अभिव्यक्ति शामिल हैं भाषाई योग्यता एक कौशल है जिसे अर्जित किया जाता है इस कौशल को अर्जित की प्रक्रिया बालक के जन्म के साथ ही प्रारंभ हो जाती है अनुकरण वातावरण के साथ अनुक्रिया तथा शारीरिक सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति की मांग इस मैं विशेष भूमिका निभाती है यह विकास बालक में धीरे-धीरे होता है जन्म से लेकर 8 माह तक बालक को किसी शब्द की जानकारी नहीं होती है 9 माह से 12 माह के बीच वह तीन या चार शब्दों को समझने लगता है डेढ़ वर्ष के भीतर उसे 10 से 12 शब्दों की जानकारी हो जाती है 2 वर्ष की आयु तक उसे 200 से अधिक शब्दों की जानकारी हो जाती है 3 वर्ष के भीतर ही बालक लगभग 1000 शब्दों को समझने लगता है इसी तरह उसमें भाषाई विकास होते रहते हैं और 16 वर्ष की आयु तक बालक लगभग 100000 शब्दों को समझने की योग्यता विकसित कर लेता हैभाषाई विकास की प्रक्रिया में लिखने एवं पढ़ने का विज्ञान उसने धीरे-धीरे ही होता है बाल्यावस्था में वह धीरे-धीरे एक-एक शब्द को पड़ता और लिखता है उसके बाद उसके इन कौशलों में गति आती जाती है

सामाजिक विकास- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।बालक में सामाजिक भावनाओं का विकास जन्म के बाद ही शुरू होता है।वृद्धि एवं विकास के अन्य पहलुओं की तरह ही सामाजिक गुण भी बच्चे में धीरे-धीरे पनपते हैं। इन गुणों के विकास की प्रक्रिया, जो बच्चे के सामाजिक व्यवहार में वाच्य परिवर्तन लाने का कार्य संपन्न करती है, सामाजिक विकास अथवा सामाजिकरण के नाम से जानी जाती है। सामाजिक वृद्धि एवं विकास का अर्थ होता है अपने साथ एवं दूसरों के साथ भली-भांति समायोजन करने की योग्यता। सामाजिक विकास की प्रक्रिया व्यक्ति को सामाजिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों और परंपराओं के अनुकूल आचरण करने में पूरी पूरी सहायता करती है और इस तरह से अपने सामाजिक परिवेश में ठीक प्रकार से समायोजित होने में समर्थ बनाती है। शारीरिक ढांचा, स्वास्थ्य, बुद्धि, संवेगात्मक विकास, परिवार, पारिवारिक वातावरण, सामाजिक वातावरण, इत्यादि व्यक्ति के सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं शिक्षा के कई उद्देश्यों में एक बालक का सामाजिक विकास भी होता है
सांवेगिक विकास- संवेग जिसे भाव भी कहा जाता है का अर्थ होता है ऐसी अवस्था जो व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करती हैं भय, क्रोध, घृणा, आश्चर्य, प्रेम, विषाद इत्यादि संधि के उदाहरण है बालक में आयु बढ़ने के साथ ही इन संवेगो का विकास भी होता रहता है। संवेगात्मक विकास मानव वृद्धि एवं विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू है व्यक्ति का संवेगात्मक व्यवहार उसके शारीरिक वृद्धि एवं विकास को ही प्रभावित नहीं, बल्कि बौद्धिक, सामाजिक एवं नैतिक विकास को भी प्रभावित करता है प्रत्येक संवेगात्मक अनुभूति व्यक्ति में कई प्रकार के शारीरिक और शरीर संबंधित परिवर्तनों को जन्म देती है संवेगात्मक विकास के दृष्टिकोण से बालक के स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास पर पूरा पूरा ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती है बालक के संवेगात्मक विकास पर पारिवारिक वातावरण भी बहुत प्रभाव डालता है विद्यालय के परिवेश और क्रियाकलापों को उचित प्रकार से संगठित कर अध्यापक बच्चों के संवेगात्मक विकास में भरपूर योगदान दे सकते हैं




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